राग बिलावल
(1)
माता लै उछंग गोबिंद मुख बार-बार निरखै।
पुलकित तनु आनँदघन छन छन मन हरषै ।। 1 ।।
पूछत तोतरात बात मातहि जदुराई।
अतिसय सुख जाते तोहि मोहि कहु समुझाई ।। 2 ।।
देखत तुव बदन कमल मन अनंद होई।
कहै कौन रसन मौन जानै कोइ कोई ।। 3 ।।
सुंदर मुख मोहि देखाउ इच्छा अति मोरे।
मम समान पुन्य पुंज बालक नहिं तोरे ।। 4 ।।
तुलसी प्रभु प्रेम बिबस मनुज रूपधारी ।
बालकेलि लीला रस ब्रज जन हितकारी ।। 5 ।।
राग ललित
(2)
'छोटी मोटी मीसी रोटी चिकनी चुपरि कै तू दै री, मैया!'
'लै कन्हैया!' 'सो कब?' 'अबहिं तात ।।'
'सिगरियै हौंहीं खैहौं, बलदाऊ को न दैहौं ।।'
'सो क्यों?' 'भटू, तेरो कहा' कहि इत उत जात ।। 1 ।।
बाल बोलि डहकि बिरावत, चरित लखि,
गोपि गन महरि मुदित पुलकित गात।
नूपुर की धुनि किंकिनि को कलरव सुनि,
कूदि कूदि किलकि किलकि ठाढ़े ठाढ़े खात ।। 2 ।।
तनियाँ ललित कटि, बिचित्र टेपारो सीस,
मुनि मन हरत बचन कहै तोतरात।
तुलसी निरखि हरषत बरषत फूल,
भूरिभागी ब्रजबासी बिबुध सिद्ध सिहात ।। 3 ।।
राग आसावरी
(3)
तोहि स्याम की सपथ जसोदा! आइ देखु गृह मेरे।
जैसी हाल करी यहि ढोटा छोटे निपट अनेरे ।। 1 ।।
गोरस हानि सहौं, न कहौं कछु, यहि ब्रजबास बसेरे।
दिन प्रति भाजन कौन बेसाहै? घर निधि काहू केरे ।। 2 ।।
किएँ निहोरो हँसत, खिझे तें डाँटत नयन तरेरे।
अबहीं तें ये सिखे कहाधौं चरित ललित सुत तेरे ।। 3 ।।
बैठो सकुचि साधु भयो चाहत मातु बदन तन हेरे।
तुलसीदास प्रभु कहौं ते बातैं जे कहि भजे सबेरे ।। 4।।
(4)
मो कहँ झूठेहुँ दोष लगावहिं।
मैया! इन्हहि बानि पर घर की, नाना जुगुति बनावहिं ।। 1 ।।
इन्ह के लिएँ खेलिबो छाँड्यो तऊ न उबरन पावहिं।
भाजन फोरि बोरि कर गोरस, देन उरहनो आवहिं ।। 2 ।।
कबहुँक बाल रोवाइ पानि गहि, मिस करि उठि-उठि धावहिं।
करहिं आपु, सिर धरहिं आन के, बचन बिरंचि हरावहिं ।। 3 ।।
मेरी टेव बूझि हलधर सों, संतत संग खेलावहिं।
जे अन्याउ करहिं काहू को, ते सिसु मोहि न भावहिं ।। 4 ।।
सुनि सुनि बचन चातुरी ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं।
बाल गोपाल केलि कल कीरति तुलसीदास मुनि गावहिं ।। 5 ।।
(5)
कबहुँ न जात पराए धामहिं ।
खेलत ही देखौं निज आँगन सदा सहित बलरामहिं ।। 1 ।।
मेरे कहाँ थाकु गोरस को, नव निधि मन्दिर यामहिं।
ठाढ़ी ग्वालि ओरहना के मिस आइ बकहिं बेकामहिं ।। 2 ।।
हौं बलि जाउँ जाहु कितहूँ जनिए, मातु सिखावति स्यामहिं।
बिनु कारन हठि दोष लगावति तात गएँ गृह ता महिं ।। 3 ।।
हरि मुख निरखि, परूष बानी सुनि, अधिक-अधिक अभिरामहिं।
तुलसीदास प्रभु देख्योइ चाहति श्रीउर ललित ललामहिं ।। 4 ।।
(6)
अब सब साँची कान्ह तिहारी।
जो हम तजे, पाइ गौं मोहन गृह आए दै गारी।। 1 ।।
सुसुकि सभीत सकुचि रूखे मुख बातें सकल सँवारी।
साधु जानि हँसि हदय लगाए, परम प्रीति महतारी ।। 2।।
कोटि जतन करि सपथ कहैं हम, मानै कौन हमारी।
तुमहि बिलोकि, आन को ऐसी क्यों कहिहैं बर नारी ।। 3 ।।
जैसे हौ तैसे सुखदायक ब्रजनायक बलिहारी।
तुलसीदास प्रभु मुख छबि निरखत मन सब जुगुति बिसारी ।। 4 ।।
राग केदारा
(7)
महरि तिहारे पायँ परौं, अपनो ब्रज लीजै।
सहि देख्यो, तुम सों कह्मो, अब नाकहिं आई, कौन दिनहिं दिन छीजै ।। 1 ।।
ग्वालिनि तौ गोरस सुखी, ता बिनु क्यों जीजै।
सुत समेत पाउँ धारि, आपुहि भवन मेरे, देखिये जो न पतीजै ।। 2 ।।
अति अनीति नीकी नहीं, अजहूँ सिख दीजै।
तुलसिदास प्रभु सों कहै उर लाइ जसोमति, ऐसी बलि कबहूँ नहिं कीजै ।। 3 ।।
(8)
अबहिं उरहनो दै गई, बहुरौ फिरि आई।
सुनु मैया ! तेरी सौं करौं, याको टेव लरन की, सकुच बेंचि सी खाई ।। 1 ।।
या ब्रज में लरिका घने, हौं ही अन्याई।
मुँह लाएँ मूँडहिं चढ़ी, अंतहुँ अहिरिनि, तू सूधी करि पाई ।। 2 ।।
सुनि सुत की अति चातुरी जसुमति मुसुकाई।
तुलसिदास ग्वालिनि ठगी आयो न उतरु, कछु, कान्ह ठगौरी लाई ।। 3 ।।
राग गौरी
(9)
अब ब्रज बास महरि किमि कीबो ?।
दूध दह्यो माखन ढारत हैं, हुतो पोसात दान दिन दीबो ।। 1 ।।
अब तौ कठिन कान्ह के करतब तुम हौ हँसति कहा कहि लीबो ?।
लीजै गाउँ, नाउँ लै रावरो, है जग ठाउँ कहूँ है जीबो ।। 2 ।।
ग्वालि बचन सुनि कहति जसोमति, भलो न भूमि पर बादर छीबो
दैअहि लागि कहौं तुलसी प्रभु, अजहुँ न तजत पयोधर पीबो ।। 3 ।।
(10)
जानी है ग्वालि परी फिरि फीकें।
मातु काज लागी लखि डाटत, है बायनो दियो घर नीकें ।। 1 ।।
अब कहि देउँ, कहति किन, यों कहि, माँगत दही धरयो जो छीकें ।। 2।।
तुलसी प्रभु मुख निरखि रही चकि, रहा न सयानप तन मन ती कें ।। 3 ।।
(11)
जौलौं हौं कान्ह रहौं गुन गोए।
तौलौं तुमहि पत्यात लोग सब, सुसुकि सभीत साँचु सो रोए ।। 1 ।।
हौ भले नँग-फँग परे गढ़ीबे, अब ए गढ़त महरि मुख जोएँ।
चुपकि न रहत, कहै कछु चाहत, ह्वैहै कीच कोठिला धोएँ ।। 2 ।।
गरजति कहा तरजिनिन्ह तरजति, बरजत सैन नैन के कोए।
तुलसी मुदित मातु सुत गति लखि, विथकी है ग्वाति मैन मन मोए ।। 3।।
(12)
भूलि न जात हौं काहूके काऊ।
साखि सखा सब सुबल, सुदामा, देखि धौं बूझि, बोलि बलदाऊ ।। 1 ।।
यह तो मोहि खिझाइ कोटि बिधि, उलटि बिबादन आइ अगाऊ।
याहि कहा मैया मुँह लावति, गनति कि ए लंगरि झगराऊ ।। 2 ।।
कहत परसपर बचन, जसोमति लखि नहिं सकति कपट सति भाऊ।
तुलसिदास ग्वालिनि अति नागरि, नट नागर मनि नंद ललाऊ ।। 3 ।।
(13)
छाँड़ों मेरे ललन! ललित लरिकाई।
ऐहैं सुत! देखुवार कालि तेरे, बबै ब्याह की बात चलाई
डरिहैं सासु ससुर चोरी सुनि, हँसिहैं नइ दुलहिया सुहाई।
उबटौं न्हाहुए गुहौं चुटिया बलि, देखि भलो बर करिहिं बड़ाई।। 2 ।।
मातु कह्यो करि कहत बोलि दै, 'भइ बड़ि बार, कालि तौ न आई'।
'जब सोइबो तात' यों 'हाँ' कहि, नयन मीचि रहे पौढ़ि कन्हाई।। 3 ।।
उठि कहो, भोर भयो, झँगुली दै, मुदित महरि लखि आतुरताई।
बिहँसी ग्वालि जानि तुलसी प्रभु, सकुचि लगे जननी उर धाई।। 4 ।।
राग केदारा
(14)
हरि को ललित बदन निहारु
निपट हीं डाँटति निठुर ज्यों लकुट कर तें डारु ।। 1।।
मंजु अजन सहित जल कन चवत लोचन चारु।
स्याम सारस मग मनहुँ ससि स्त्रवत सुधा सिंगारु ।। 2 ।।
सुभग उर दधि बुंद सुंदर लखि अपनपौ वारु।
मनहुँ मरकत मृदु सिखर पर लसत बिसद तुषारु ।। 3 ।।
कान्हहू पर सतर भोंहें महरि ! मनहिं बिचारु।
दास तुलसी रहति क्यों रिस निरखि नंदकुमारु ।। 4 ।।
(15)
लेत भरि भरि नीर कान्ह कमल नैन ।
फरक अधर डर, निरखि लकुट कर, कहि न सकत कछु बैन ।। 1 ।।
दुसह दाँवरी छोरि, थोरी खोरि, कहा कीन्हो,
चीन्हो री सुभाउ तेरो आजु लगे माई मैं न ।
तुलसिदास नँद ललन ललित लखि रिस क्यों रहति उर ऐन ॥2॥
(16)
हाहा री महरि! बारो, कहा रिसबस भई,
कोखि के जाए सों रोषु केतो बड़ो कियो है।
ढीली करि दाँवरी, बावरी! साँवरेहि देखि,
सकुचि सहमि सिसु भारी भय भियो है।। 1 ।।
दूध दधि माखन भो, लाखन गोधन धन
जब ते जनम हलधर हरि लियो है।
खायो, कै खवायो, कै बिगार्यो, ढार्यो लरिका री,
ऐस सुत पर कोह, कैसो तेरो हियो है? ।। 2 ।।
मुनि कहैं सुकृती न नंद जसुमति सम
न भयो, न भावी, नहिं बिद्यमान बियो है।
कौन जानै कौनें तप, कौनें जोग जाप जप
कान्ह सो सुवन तोको महादेव दियो है।। 3 ।।
इन्हही के आए ते बधाए ब्रज नित नए
नादत बाढ़त सब सब सुख जियो है।
नंदलाल बाल जस संत सुर सरबस
गाइ सो अमिय रस तुलसिहुँ पियो है।। 4 ।।
(17)
ललित लालन निहारि, महरि मन बिचारि,
डारि दे घर-बसी लकुटी बेगि कर तें।
कछु न कहि सकत, सुसुकत सकुचत,
डरहूँ को डर, कान्ह डरै तेरे डर तें ।। 1 ।।
कह्यो मेरो मानि, हित जानि, तू सयानी बड़ी,
बड़े भाग पायो पूत बिधि हरि हर तें।
ताहि बाँधिबे को धाई, ग्वालिनी गोरस बहाई
लै लै आई बावरी दाँवरी घर घर तें ।। 2 ।।
कुल-गुरु-तिय के बचन कमनीय सुनि
सुधि भए बचन जे सुने मुनिबर तें।
छोरि, लिए लाइ उर, बरषैं सुमन सुर
मंगल है तिहुँ पुर हरि हलधर तें ।। 3 ।।
आनँद बधावनो मुदित गोप-गोपीगन,
आजु परी कुसल कठिन करवर तें।
तुलसी जे तोरे तरु, किए देव दियो बरु,
कै न लह्यो कौन फरु देव दामोदर तें ।। 4 ।।
राग मलार
(18)
ब्रज पर घन घमंड करि आए।
अति अपमान बिचारि आपनो कोपि सुरेस पठाए ।। 1।।
दमकति दुसह दसहुँ दिसि दामिनि, भयो तम गगन गँभीर।
गरजत घोर बारिधर धावत प्रेरित प्रबल समीर ।। 2 ।।
बार-बार पबिपात, उपल घन बरषत बूँद बिसाल।
सीत-सभीत पुकारत आरत गो गोसुत गोपी ग्वाल ।। 3 ।।
राखहु राम कान्ह यहि अवसर, दुसह दसा भइ आइ।
नंद बिरोध कियो सुरपति सों, सो तुम्हरो बल पाइ ।। 4 ।।
सुनि हँसि उठ्यो नंद को नाहरु, लियो कर कुधर उठाइ।
तुलसिदास मघवा अपने सो करि गयो गर्ब गँवाइ ।। 5 ।।
राग गौरी
(19)
टेरीं कान्ह गोबर्धन चढ़ि गैया।
मथि मथि पियो बारि चारिक मैं भूख न जाति अघाति न घैया ।। 1 ।।
सैल सिखर चढ़ि चितै चकित चित, अति हित बचन कहो बल भैया।
बाँधि लकुट पट फेरि बोलाईं, सुनि कल बेनु धेनु धुकि धैया ।। 2 ।।
बलदाऊ! देखियत दूरि तैं, आवति छाक पठाई मेरी मैया।
किलकि सखा सब नचत मोर ज्यों, कूदत कपि कुरंग की नैया ।। 3 ।।
खेलत खात परसपर डहकत, छीनत कहत करत रोग दैया।
तुलसी बालकेलि सुख निरखत, बरषत सुमन सहित सुर सैया ।। 4 ।।
राग नट
(20)
गावत गोपाल लाल नीकें राग नट हैं।
चलि री आलि देखन, लोयन लाहु पेखन, ठाढ़े सुरतरु तर तटिनी के तट हैं ।। 1 ।।
मोरचंदा चारु सिर, मंजु गुंजापुंज धरें, बनि बनधातु तन ओढ़े पीत पट हैं।
मुरली तान तरँग, मोहे कुरँग बिहँग, जोहैं मूरति त्रिभंग निपट निकट हैं ।। 2 ।।
अंबर अमर हरषत बरषत फूल, स्नेह सिथिल गोप गाइन के ठट हैं।
तुलसी प्रभु निहारि जहाँ तहाँ ब्रज नारि, ठगी ठाढ़ी मग लिएँ रीते भरे घट हैं
।। 3 ।।
राग बिलावल
(21)
देखु सखी हरि बदन इंदु पर।
चिक्कन कुटिल अलक-अवली-छबि कहि न जाइ सोभा अनूप बर ।। 1 ।।
बाल भुअंगिनि निकर मनहुँ मिलि रहीं घेरि रस जानि सुधाकर।
तजि न सकहिं, नहिं करहिं पान, कहु, कारन कौन बिचारि डरहिं डर ।। 2 ।।
अरून बनज लोचन कपोल सुभ, स्त्रुति मंडित कुंडल अति सुंदर।
मनहुँ सिंधु निज सुतहि मनावन पठए जुगुल बसीठ बारिचर ।। 3 ।।
नँदनंदन मुख की सुंदरता कहि न सकत स्त्रुति सेष उमाबर।
तुलसिदास त्रैलोक्य बिमोहन रूप कपट नर त्रिबिध सूलहर ।। 4 ।।
(22)
आजु उनीदे आए मुरारी।
आलसवंत सुभग लोचन सखि! छिन मूदत छिन देत उघारी ।। 1 ।।
मनहुँ इंदु पर खंजरीट द्वै कछुक अरुन बिधि रचे सँवारी।
कुटिल अलक जनु मार फंद कर, गहे सजग है रह्यो सँभारी ।। 2 ।।
मनहुँ उड़न चाहत अति चंचल पलक पंख छिन देत पसारी।
नासिक कीर, बचन पिक, सुनि करि, संगति मनु गुनि रहत बिचारी ।। 3।।
रुचिर कपोल, चारु कुंडल बर, भ्रुकुटि सरासन की अनुहारी।
परम चपल तेहि त्रास मनहुँ खग प्रगटत दुरत न मानत हारी ।। 4 ।।
जदुपति मुख छबि कलप कोटि लगि कहि न जाइ जाकें मुख चारी।
तुलसिदास जेहि निरखि ग्वालिनी भजीं तात पति तनय बिसारी ।। 5 ।।
राग गौरी
(23)
गोपाल गोकुल बल्लवी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं।
चरनारबिंद महं भजे भजनीय सुर मुनि दुर्लभं ।। 1 ।।
घनश्याम काम अनेक छबि, लोकभिराम मनोहरं।
किंजल्क बसन, किसोर मूरति, भूरि गुन करुनाकरं ।। 2 ।।
सिर केकि पच्छ बिलोल कुंडल, अरून बनरूह लोचनं।
गुंजावतंस बिचित्र सब अँग धातु, भव भय मोचनं ।। 3 ।।
कच कुटिल, सुंदर तिलक भ्रू, राका मयंक समाननं।
अपहरन तुलसीदास त्रास बिहार बृंदाकाननं ।। 4 ।।
राग बिलावल
(24)
बिछुरत श्रीब्रजराज आजु इन नयनन की परतीति गई।
उड़ि न लगे हरि संग सहज तजि, है न गए सखि स्याममई ।। 1 ।।
रूप रसिक लालची कहावत, सो करनी कछु तौ न भई।
साँचेहु कूर कुटिल सित मेचक, बृथा मीन छबि छीन लई ।। 2 ।।
अब काहें सोचत मोचत जल, समय गएँ चित सूल नई।
तुलसीदास जड़ भए आपहि तें, जब पलकनि हठि दगा दई ।। 3 ।।
राग कान्हरा
(25)
नहिं कछु दोष स्याम को माई!
जो दुख मैं पायों सुनि सजनी सो तो सबै मन की चतुराई ।। 1।।
निज हित लागि तबहिं ए बंचक सब अंगनि बसि प्रीति बढ़ाई।
लियो जो सकल सुख हरि अँग-सँग को, जहँ जेहि बिधि तहँ सोइ बनाई ।। 2 ।।
अब नँदलाल गवन सुनि मधुबन, तनहि तजत नहिं बार लगाई
रुचिर रूप-जल मो रसेस ह्वे मिलि, न फिरन की बात चलाई ।। 3 ।।
एहि सरीर बसि सखि वा सठ कहँ,कहि न जाइ जो निधि फिरि पाई।
तदपि कछू उपकार न कीन्हो, निज मिलन्यौ तहिं मोहि लिखाई ।। 4 ।।
आपु मिल्यो यहि भाँति जाति तजि, तनु मिलयो जल पय की नाई।
ह्वै मराल आयो सुफलक सुत, लै गयो छीर नीर बिलगाई ।। 5 ।।
मनहूँ तजी कान्हहूँ त्यागी, प्रानौ चलिहैं परिमिति पाई।
तुलसिदास रीतेहु तन ऊपर नयननि की ममता अधिकाई ।। 6 ।।
राग धनाश्री
(26)
करि है हरि बालक की सी केलि।
हरष न रचत, बिषाद न बिगरत ए डगरि चले हँसि खेलि ।। 1 ।।
बई बनाय बारि बृंदाबन प्रीति सँजीवनि बेलि।
सींचि सनेह सुधा, खनि काढ़ी लोक बेद परहेलि ।। 2 ।।
तृन ज्यों तजीं, पालि तनु ज्यों हम बिधि बासव बल पेलि।
एतहु पर भावत तुलसी प्रभु गए मोहिनी मेलि ।। 3 ।।
(27)
आलि! अब कहुँ जनि नेह निहारि।
समुझें सहें हमारो है हित बिधि बामता बिचारि ।। 1 ।।
सत्य सनेह सील सोभा सुख सब गुन उदधि अपारि।
देख्यो सुन्यो न कबहुँ काहु कहुँ मीन बियोगी बारि ।। 2 ।।
कहियत काकु कूबरीहूँ को, सो कुबानि बस नारि।
बिष तें बिषम बिनय अनहित की, सुधा सनेही गारि ।। 3 ।।
मन फेरियत कुतर्क कोटि करि कुबल भरोसे भारि।
तुलसी जग दूजा न देखियत कान्ह कुँवर अनुहारि ।। 4 ।।
(28)
लागियै रहति नयननि आगे तें न टरति मोहन मूरति।
नील नलिन स्याम सोभा अगनित काम, पावन हृदय जेहिं फूरति ।। 1।।
अमित सारादा सेष नहीं कहि सकत अंग अँग सूरति।
तुलसिदास बड़े भाग मन लागेहु तें सब सुख पूरति ।। 2 ।।
(29)
जब ते ब्रज तजि गये कन्हाई।
तब ते बिरह रबि उदित एकरस सखि! बिछुरन बृष पाई ।। 1 ।।
घटत न तेज, चलत नाहिन रथए रह्यो उर नभ पर छाई।
इन्द्रिय रूप रासि सोचहि सुठि सुधि सब की बिसराई ।। 2 ।।
भया सोक भय[1] कोक कोकनद भ्रम भ्रमरनि सुखदाई।
चित चकोर, मन मोर, कुमुद मुद, सकल बिकल अधिकाई ।। 3 ।।
तनु तड़ाग बल बारि सुखन लाग्यो परि कुरुपता काई।
प्रान मीन दिन दीन दूबरेए दसा दुसह अब आई ।। 4 ।।
तुलसीदास मनोरथ मन मृग मरत जहाँ तहँ धाई।
राम स्याम सावन भादौं बिनु जिय की जरनि न जाई ।। 5 ।।
राग धनाश्री
(30)
ससि तें सीतल मोकौं लागै माई री! तरनि।
याके उएँ बरति अधिक अँग अँग दव, वाके उएँ मिटति रजनि जनित जरनि ।। 1 ।।
सब बिपरीत भए माधव बिनु, हित जो करत अनहित की करनि।
तुलसीदास स्यामसुंदर-बिरह की दुसह दसा सो मो पैं परति नहीं बरनि ।। 2 ।।
(31)
संतत दुखद सखी! रजनीकर।
स्वारथ रत तब, अबहुँ एकरस, मो को कबहूँ न भयो तापहर ।। 1 ।।
निज अंसिक सुख लागि चतुर अति, कीन्ही प्रथम निसा सुभ सुंदर।
अब बिनु मन तन दहतए दया करि। राखत रबि ह्वै नयन बारिधर ।। 2 ।।
जद्यपि है दारून बड़वानल, राख्यो है जलधि गँभीर धीरतर।
ताहु तें परम कठिन जान्यो ससि, तज्यो पिता, तब भयो ब्योमचर ।। 3 ।।
सकल बिकार कोस बिरहिनि रिपु काहे तें याहि सराहत सुर नर।
तुलसिदास त्रैलाक्य मान्य भयो, कारन इहै, गह्यो गिरिजाबर ।। 4 ।।
राग मलार
(32)
कोउ सखि नई बात सुनि आई।
यह ब्रजभूमि सकल सुरपति सों, मदन मिलिक करि पाई ।। 1।।
घन धावनए बग पाँति पटो सिर, बैरख तड़ित सोहाई।
बेलत पिक नकीब, गरजनि मिस, मानहुँ फिरत दोहाई ।। 2 ।।
चतक मोर चकोर मधुप सुक सुमन समीर सहाई।
चहत कियो बास बृंदाबनए बिधि सों कछु न बसाई ।। 3 ।।
सींव न चाँपि सक्यो कोऊ तब, जब हुते राम कन्हाई।
अब तुलसी गिरिधर बिनु गोकुल कौन करिहि ठकुराई ।। 4 ।।
राग सोरठा
(33)
ऊधो! या ब्रज की दसा बिचारौ।
ता पाछे यह सिद्धि आपनी जोग कथा बिस्तारौ ।। 1 ।।
जा कारन पठए तुम माधव, सो सोचहु मन माहीं।
कोतिक बीच बिरह परमारथ, जानत हौ किधौं नाहीं ।। 2 ।।
परम चतुर निज दास स्याम के, संतत निकट रहत हौ।
जल बूड़त अवलंब फेन कौ फिरि-फिरि कहा कहत हौ? ।। 3 ।।
वह अति ललित मनोहर आनन कौने जतन बिसारौं।
जोग जुगुमि अरू मुकुति बिबिध बिधि वा मुरली पर वारौं ।। 4 ।।
जेहिं उस बसत स्यामसुंदर घन, तेहिं निर्गुन कस आवैं।
तुलसिदास सो भजन बहावौ, जाहि दूसरो भावै ।। 5 ।।
(34)
मधुकर! कहहु कहन जो पारौ।
बलि, नाहिन अपराध रावरो, सकुचि साध जनि मारौ ।। 1 ।।
नहिं तुम ब्रज बसि नन्दलाल को बालबिनोद निहारौ।
नाहिन रास रसिक रस चाख्यो, तात डेल सो डारौं ।। 2 ।।
तुलसी जौ न गए, प्रीपम सँग प्रान त्यागि तनु न्यारौ।
तौ सुनिबो देखिबो बहुत अब कहा करम सों चारौ ।। 3 ।।
(35)
ऊधो जू कह्यो तिहारोइ कीबो।
नीकें जिय की जाने अपनपौ समुझि सिखावन दीबो ।। 1 ।।
स्याम बियोगी ब्रज के लोगिनि जोग जोग जो जानौ।
तौ सँकोच परिहरि पा पागौं परमारथहि बखानौ ।। 2 ।।
गोपी गाय ग्वाल गोसुत सब रहत रूप अनुरागे।
दीन मलीन छीन तनु डोलत मीन मजा सों लागे ।। 3 ।।
तुलसी है सनेह दुखदायक, नहिं जानत ऐसो को है।
तऊ न होत कान्ह को सो मन, सबै साहिबहि सोहै।। 4 ।।
राग बिलावल
(36)
सो कहौ मधुप! जे मोहन कहि पठई।
तुम सकुचत कत? हौंही नीकें जानति, नंदनंदन हो निपट करी सठई ।। 1 ।।
हुतो न साँचो सनेह, मिट्यो मन को सँदेह हरि परे उघरि, सँदेसहु ठठई।
तुलसिदास कौन आस मिलन की, कहि गये सो तौ कछु एकौ न चित ठई ।। 2 ।।
(37)
मेरे जान और कछु न मन गुनिए।
कूबरी रवन कान्ह कही जो मधुप सों, सोई सिख सजनी ! सुचित दै सुनिए ।। 1 ।।
काहे को करति रोष, देहि धौं कौन को दोष, निज नयननिको बयो सब लुनिए।
दारु सरीर, कीट पहिले सुख, सुमिरि सुमिरि बासर निसि धुनिए ।। 2 ।।
ये सनेह सुचि अधिक अधिक रुचि, बरज्यो न करत कितो सिर धुनिए।
तुलसीदास अब नंदसुवन हित बिषम बियोग अनल तनु हुनिए ॥ 3 ॥
(38)
भली कही, आली हमहुँ पहिचाने।
हरि निर्गुन, निर्लेप, निरपने, निपट निठुर, निज काज सयाने ।। 1 ।।
ब्रज को बिरह, अरु संग महर को, कुबरिहि बरत न नेकु लजाने।
समुझि सो प्रीति की रीति स्याम की, सोइ बावरि जो परेखो उर आने ।। 2 ।।
सुनत न सिख लालची बिलोचन, एतेहु पर रुचि रूप लोभाने।
तुलसीदास इहै अधिक कान्ह पहिं, नीकेई लागत मन रहत समाने ।। 3 ।।
राग मलार
(39)
जो पै अलि! अंत इहै करिबो हो।
तौ अगनित अहीर अबलनि को हठि न हियो हरिबो हो ।। 1 ।।
जौ प्रंपच करि नाम प्रेम फिरि अनुचित आचरिबो हो।
तौ मथुराहि महाहिमा लहि सकल ढरनि ढरिबो हो ।। 2 ।।
दै कूबरिहि रूप ब्रज सुधि भएँ लौकिक डर डरिबो हो।
ग्यान बिराग काल कृत करतब हमरहि सिर धरिबो हो।
उन्हहि राग रबि नीरद जल ज्यों प्रभु परिमिति परिबो हो।
हमहुँ निठुर निरूपाधि नीर निधि[3]निज भुजबल तरिबो हो ।। 4 ।।
भलो भयो सब भाँति हमारोए एक बार मरिबो हो।
तुलसी कान्ह बिरह नित नव जरजरि जीवन भरिबो हो ।। 5 ।।
(40)
ऊधो! यह ह्याँ न कछू कहिबे ही।
ग्यान गिरा कुबरीरवन की सुनि बिचारि गहिबे ही ।। 1 ।।
पाइ रजाइ, नाइ सिर, गृह ह्वै गति परमिति लहिबे ही।
मति मटुकी मृगजल भरि घृत हित मन-हीं-मन महिबे ही ।। 2 ।।
गाडे भली, उखारे अनुचित, बनि आएँ बहिबे ही।
तुलसी प्रभुहिं तुमहिं हमहूँ हियँ सासति सी सहिबे ही ।। 3 ।।
(41)
मधुकर! कान्ह कही ते न होही।
कै ये नई सीख सिखई हरि निज अनुराग बिछोही ।। 1 ।।
राखी सचि कूबरी पीठ पर ये बातें बकुचौहीं।
स्याम सो गाहक पाइ सयानी! खोलि देखाई है गौहीं ।। 2 ।।
नगर मनि सो सागर जेहिं जग जुबतीं हँसि मोहीं।
लियो रूप दै ग्यान गाँठरी भलो ठग्यो ठगु ओहीं ।। 3 ।।
है निर्गुन सारी बारिक, बलि घरी करौं, हम जोही।
तुलसी ये नागरिन्ह जोग पट, जिन्हहि आजु सब सोही ।। 4 ।।
(42)
मधुप! तुम्ह कान्ह ही की कही क्यों न कही है?
यह बतकही चपल चेरी की निपट चरेरीयै रही है।। 1 ।।
कब ब्रज तज्यो, ग्यान कब उपज्यो? कब बिदेहता लही है?
गए बिसरि रीति गोकुल की, अब निर्गुन गति गही है।। 2 ।।
आयसु देहु, करहिं सोइ सिर धरि, प्रीति परमिति निरबही है।
तुलसी परमेस्वर न सहैगो, हम अबलनि सब सही है।। 3 ।।
(43)
दीन्हीं हैं मधुप सबहि सिख नीकी।
सोइ आदरौ, आस जाके जिय बारि बिलोवत घी की ।। 1 ।।
बुझी बात कान्ह कुबरी की, मधुकर कछु जनि पूछौ।
ठालीं ग्वालि जानि पठए, अलि, कह्यो है पछोरन छूछौ ।। 2 ।।
हमहूँ कछुक लखी ही तब की औरेब नंदलला की।
ये अब लही चतुर चेरी पै चोखी चाल चलाकी ।। 3 ।।
गए कर तें घर तें, आँगन तें ब्रजहू तें ब्रजनाथ।
तुलसी प्रभु गयो चहत मनहु तें, सो तो है हमारे हाथ ।। 4 ।।
(44)
ताकी सिख ब्रज न सुनैगो कोउ भोरें।
जाकी कहनि रहनि अनमिल अलि! सुनत समझियत थोरें ।। 1 ।।
आपु कंज मकरंद सुधाह्रद हृदय रहत नित बोरें ।
हम सों कहत बिरह-स्त्रम जैहे गगन कूप खनि खोरें ।। 2 ।।
धान को गाँव पयार तें जानिय ग्यान बिषय मन मोरें।
तुलसी अधिक कहें न रहै रस, गूलरि को सो फल फोरें ।। 3 ।।
(45)
आली! अति अनुचित, उतरु न दीजै।
सेवक सखा सनेही हरि के, जो कछु कहैं सो कीजै ।। 1 ।।
देस काल उपदेस सँदेसो सादर सब सुनि लीजै।
कै समुझिबो कै ये समुझैहैं, हारेहुँ मानि सहीजै ।। 2 ।।
सखि सरोष प्रिय दोष बिचारत प्रम पीन पन छीजै।
खग मृग मीन सलभ सरसिज गति सुनि पाहनौ पसीजै ।। 3 ।।
ऊधो परम हितू हित सिखवत परमिति पहुँचि पतीजै। तु
तुलसिदास अपराध आपनो, नंदलाल पहुँचि बिनु जीजै ।। 4 ।।
(46)
ऊधो हैं बड़े, कहैं सोइ कीजै।
अलि ए पहिचानि प्रेमकी परिमिति उतरु फेरि नहिं दीजै ।। 1 ।।
जननी जनक जरठ जाने, जन परिजन लोगु न छीजै।
दै पठयो पहिलो बिढ़तो ब्रज, सादर सिर धरि लीजै ।। 2 ।।
कंस मारि जदुबंस सुखी कियो, स्त्रवन सुजस सुनि जीजै।
तुलसी त्यों-त्यों होइगी गरूई, ज्यों ज्यों कामरि भीजै ।। 3 ।।
(47)
कान्ह, अलि, भए नए गुरु ग्यानी।
तुम्हरे कहत आपने समुझत बात सही उर आनी ।। 1 ।।
लिए अपनाइ लाइ चंदन तन, कछु कटु चाह उड़ानी।
जरी सुँघाइ कूबरी कौतुक करि जोगी बघा-जुड़ानी ।। 2 ।।
ब्रज बसि रास बिलास, मधुपुरी चेरी सों रति मानी।
जोग जोग ग्वालिनी बियोगिनि जान सिरोमनि जानी ।। 3 ।।
कहिबे कछूए कछू कहि जैहै, रहौ आलि! अरगानी।
तुलसी हाथ पराएँ प्रीतम, तुम्ह प्रिय हाथ बिकानी ।। 4 ।।
(48)
सब मिलि साहस करिय सयानी।
ब्रज आनियहिं मनाइ पायँ परि कान्ह कूबरी रानी ।। 1 ।।
बसैं सुबास, सुपास हेहिं सब फिरि गोकुल रजधानीं।
महरि महर जीवहिं सुख जीवन खुलहिं मोद मनि खानीं ।। 2 ।।
तजि अभियान अनख अपनों हित कीजिय मुनिबर वानी।
देखिबो दरस दूसरेहुँ बड़ो लाभ, लघु हानि ।। 3 ।।
पावक परत निषिद्ध लाकरी होति अनल जग जानी।
तुलसी सो तिहुँ भुवन नंदसुवन सनमानी ।। 4 ।।
(49)
कही है भली बात सब के मन मानी।
प्रय समप्रिय सनेह भाजन सखि प्रीय-रीति जग जानी ।। 1 ।।
भूषन भूति गरल परिहरि कै हर मूरित उर आनी।
मज्जन पान कियो के सुरसरि कर्मनास जल छानी ।। 2 ।।
पूँछ सो प्रेम, बिरोध सींग सों एहिं बिचार हित हानी।
कीजै कान्ह कुबरी सों नित नेह करम मन बानी ।। 3 ।।
तुलसी तजिय कुचालि आलि! अब, सुधरै सबइ नसानी।
आगें करि मधुकर मथुरा कहँ सोधिय सुदिन सयानी ।। 4 ।।
राग कान्हरा
(50)
हे हम समाचार सब पाए।
अब बिसेष देखे तुम देखे, हैं कूबरी हाँक से लाए ।। 1 ।।
मथुरा बड़ो नगर नागर जन, जिन्ह जातहिं जदुनाथ पढ़ाए।
समुझि रहनिए सुनि कहनि बिरह ब्रन, अनख अमिय ओषध सरुहाए ।। 2 ।।
मधुकर रसिक सिरोमनि कहियत, कौने यह रस रीति सिखाए।
बिनु आखर को गीत गाइ कै चाहत ग्वालिन ग्वाल रिझाए ।। 3 ।।
फल पहिले हीं लों ब्रजबासिन्ह, टब साधन उपदेसन आए।
तुलसी अलि अजहुँ नहीं बूझत, कौन हेतु नँदलाल पठाए ।। 4 ।।
राग कान्हरा
(51)
कौन सुनै अलि की चतुराई।
अपनिहिं मतिबिलास अकास महँ चाहत सियनि चलाई ।। 1 ।।
सरल सुलभ हरिभगति सुखाकर निगम पुराननि गाई ।
तजि सोइ सुधा मनोरथ करि को मरिहै री, माई ।। 2 ।।
जद्यपि ताको सोइ मारग प्रिय जहाँ बनि आई ।
मैन के दसन कुलिस के मोदक कहत सुनत बौराई ।। 3 ।।
सुगन छीरनिधि तीर बसत ब्रज तिहुँ पुर बिदित बड़ाई।
आक दुहन तुम कह्मो, सो परिहरि हम यह मति नहिं पाई ।। 4 ।।
जानत हैं जदुनाथ सबनि की बुधि बिबेक जड़ताई।
तुलसीदास जनि बकहि मधुप सठ! हठ निसि दिन अँवराई ।। 5 ।।
राग केदार
(52)
गोकुल प्रीति नित नई जानि।
जइ अनत सुनाइ मधुकर ग्यान गिरा पुरानि ।। 1 ।।
मिलहिं जोगी जरठ तिन्हहि देखाउ निरगुन खानि।
नवल नंदकुमार के ब्रज सगुन सुजस बखानि ।। 2 ।।
तू जो हम आदर्यो, सो तो ब्रज कमल की कानिं।
तजहि तुलसी समुझि यह उपदेसिबे की बानि ।। 3 ।।
(53)
काहे को कहत बचन सँवारि।
ग्यानगाहक नाहिनै ब्रज, मधुप! अनत सिधारि ।। 1 ।।
जुगुति धूम बघारिबे की समुझिहैं न गँवारि।
जोगिजन मुनिमंडली मों जाइ रीती ढारि ।। 2 ।।
सुनै तिन्ह की कौन तुलसीण् जिन्हहि जीति न हारि।
सकति खारो कियो चाहत मेघहू को बारि ।। 3 ।।
(54)
ऐसो हौंहुँ जानति भृंग!
नाहिनै काहूँ लह्यो सुख प्रीति करि इक अंग ।। 1 ।।
कौन भीर जो नीरदहि, जेहि लागि रटत बिहंग।
मीन जल बिनु तलफि तनु तजै, सलिल सहज असंग ।। 2 ।।
पीर कछू न मनिहि, जाकें बिरह बिकल भुअंग।
ब्याध बिसिख बिलोक नहिं कलगान लुबुध कुरंग ।। 3 ।।
स्यामघन गुनबरि छबिमनि मुरलि तान तरंग।
लग्यो मन बहु भाँति तुलसी होइ क्यों रसभंग? ।। 4 ।।
(55)
ऊधो! प्रीति करि निरमोहियन सों को न भयो दुख दीन?।
सनत समुझत कहत हम सब भई अति अप्रबीन ।। 1 ।।
अहि कुरंग पतंग कुरंग कंज चकोर चातक मीन।
बैठि इन की पाँति अब सुख चहत मन मतिहीन ।। 2 ।।
निठुरता अरू नेह की गति कठित परति कही न।
दास तुलसी सोच नित निज प्रेम जानि मलीन ।। 3 ।।
राग गौरी
(56)
सुनत कुलिस सम बचन तिहारे।
चित दै मधुर! सुनइु सोइ कारन, जाते जात न प्रान हमारे ।। 1 ।।
ग्यान कृपान समान लगत उर, बिहरत छिन-छिन होत निनारे।
अविध जरा जोरति हठि पुरि-पुनि, याते रहत सहत दुख भारे ।। 2 ।।
पवक बिरह, समीर स्वास, तनु तूल मिले तुम जारनिहारे।
तिन्हहि निदरि अपने हित कारन, राखत नयन निपुन रखवारे ।। 3 ।।
जीवन कठिन, मरन की यह गति, दुसह बिपति ब्रजनाथ निवारे।
तुलसिदास यह दसा जानि जियँ, उचित होइ सो कहौ अलि! प्यारे ।। 4 ।।
(57)
छपद! सुनहु बर बचन हमारे।
बिनु ब्रजनाथ ताप नयननि को कौन हरे, हरि अंतर कारे ।। 1 ।।
कनक कुंभ भरि-भरि पियूष जल बरषत जलद कलप सत हारे।
कदलि सीप, चातक को कारज स्वाति बारि बिनु कोउ न सँवारे ।। 2 ।।
सब अँग रुचिर किसोर स्यामघन जेहिं ह्यदि जलज बसत हरि प्यारे।
तेहिं उर क्यों समात बिराट बपु स्यों महि सरित सिंधु गिरि भारे ।। 3 ।।
बढ्यो प्रेंम अति प्रलय के बर ज्यों बिपुल जोग जल बोरि न पारे।
तुलसिदास ब्रज बनितनि को ब्रत समरथ को करि जतन निवारे ।। 4 ।।
(58)
मधुप! समुझि देखहु मन माहीं।
प्रेम पियूषरूप उड़ुपति बिनु कैसे हो अलि! पैयत रबि पाहीं ।। 1 ।।
जद्यपि तुम हित लागि कहत सुनि स्त्रवन बचन नहीं हृदयँ समाहीं।
मिलहिं न पावक महँ तुषार कन जौ खौजत सत कल्प सिराहीं ।। 2 ।।
तुम कहि रहे, हमहुँ पचि हारीं, लोचन हठी तजत हठ नाहीं।
तुलसिदास सोइ जतन करहु कछु बारेक स्याम इहाँ फिरि जाहीं ।। 3 ।।
(59)
मोको अब नयन भए रिपु माई!
हरि-बियोग तनु तजेहिं परम सुख, ए राखहिं सो करि बरिआई ।। 1 ।।
बरु मन कियो बहुत हित मेरो, बरहिं बार काम दव लाई।
बरषि नीर ये तबहिं बुझावहिं स्वारथ निपुन अधिक चतुराई ।। 2 ।।
ग्यान परसु दै मधुप पठायो बिरह बेलि कैसेहुँ कटि जाई।
सो थाक्यो बरू रह्यो एकटक देखत इन की सहज सिंचाई ।। 3 ।।
हारतहूँ न हारि मानत सठ सखि! सुभाव कंदुक की नाई।
चातक जलज मीनहु ते भोरे, समुझत नहिं उन की निठुराई ।। 4 ।।
ये हठ निरत दरस लालच बस, परे जहाँ बल बुधि न बसाई।
तुलसिदास इन्ह पै जो द्रवहिं हरि तौ पुनि मिलहिं बैरु बिसराई ।। 5 ।।
राग आसावरी
(60)
कहा भयो कपट जुआ जौ हौं हारी।
समर धीर महाबीर पाँच पति क्यों दैहै मोहि होन उघारी ।। 1 ।।
राज समाज सभासद समरथ भीषम द्रोन धर्म धुर धारी।
अबला अनघ अनवसर अनुचित होति हेरि करिहैं रखवारी ।। 2 ।।
यों मन गुनति दुसासन दुरजन तम क्यो तकि गहि दुहुँ कर सारी।
सकुचि गात गोवति कमठी ज्यों हहरी हृदयँ, बिकल भइ भारी ।। 3 ।।
अपनेनि को अपनो बिलोकि बल सकल आस बिस्वास बिसारी
हाथ उठाइ अनाथनाथ सों पाहि पाहि प्रभु! पाहि' पुकारी ॥ 4 ॥
तुलसी परखि प्रतीति प्रीति गति आरतपाल कृपालु मुरारी।
बसन बेष राखी बिसेषि लखि बिरुदावलि मूरति नर नारी ।। 5 ।।
(61)
गहगह गगन दुंदुभी बाजी।
बरषि सुमन सुरगन गावत जस, हरष मगन मुनि सुजन समाजी
सानुज सगन ससचिव सुजोधन भए मुख मलिन खाइ खल खाजी[1]।
खाजी लाज गाज उपवनि कुचाल कलि प्री बजाइ कहूँ कहुँ गाजी ।। 2 ।।
भुरि ति प्रतीति द्रुपदतनया की भली भूरि भय भभरि न भाजी।
कहि पारथ सारथिहि सराहत गई बहोरि गरीब नेवाजी ।। 3 ।।
सिथिल सनेह मुदित मनहीं मन बसन बीच बीच बधू बिराजी।
सभा सिंधु जदुपति जय जय जनु रमा प्रगटि त्रिभुवन भरि भ्राजी ।। 4 ।।
जुग जुग जग साके केसव के समन कलेस कुसाज सुसाजी
तुलसी को न होइ सुनि कीरति कृष्न कृपालु भगति पथ राजी ।। 5 ।।
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